भगवान नित्यानंद का परब्रह्म तत्त्व

महामहिम आचार्य पिप्पलाद महर्षि को भगवान पिप्पलाद के रूप में जाना जाता है। उन्हें सृष्टि , स्तिथि , लय , परब्रह्म स्तिथि और जगतकारण के परम रहस्य का ज्ञान था और एहसास था इसका कार्यरूप ही ब्रह्मांड है। छह ऋषिपुत्र आचार्य पिप्पलाद के पास ब्रह्मविद्या रहस्य सीखने के लिए आये ।

वो हैं,
1 भारद्वाज ऋषि के पुत्र सुकेश
2 शिबि के पुत्र सत्यकाम
3 गार्ग्य गोत्र में जन्मे सौर्यायणि गार्ग्य
4 सूर्य के पौत्र भृगु गोत्र से संबंधित अश्वपाल के पुत्र कौसल्य
5 भार्गव वैदर्भि
6 कात्य के पुत्र कबंधी
इन छह ऋषिपुत्रों ने आचार्य पिप्पलाद से एक-एक कर अपने प्रश्न पूछे।

पहला प्रश्न
पहला प्रश्न भार्गवगोत्र के कबंधी ने पूछा, हे आदरणीय, सृष्टिकर्ता कौन है? ’आचार्य ने उत्तर दिया प्रजापति ही सृष्टिकर्ता हैं’, और उनके संकल्प से जगत का जन्म हुआ है। सृष्टि में चेतन और अचेतन दो तरह के जीव हैं। चेतन जीव पांच प्रकार के हैं पशु, पक्षी , देव , मानव आदि। पृथ्वी, अपा(जल), तेजस(अग्नि), वायु आकाश पंचमहाभूत हैं, इनमें से पृथ्वी, अपा, और तेजस मूर्त हैं और बाकी अमूर्त हैं। विभिन्न अनुपातों में पंचभूतों के माध्यम से निर्मित वे एक दूसरे से अलग-अलग हैं।

पंचभुतों के बाद, प्रजापति ने प्राण और रयि को उत्पन्न किया, उनके मिलन से सृष्टि का सृजन हुआ। प्राण पुरुष है, रयि प्रकृति है; आदित्य प्राण है, चंद्रमा रयि है; अगर उत्तरायण प्राण है तो दक्षिणायण रयि है; दिन प्राण है, रात रयि है। परमात्मा प्राप्त है ; परब्रह्म वह है जो सूर्य को प्रकाशित करता है; परमात्मा शारिरी है, जीव शरीर है, सब कुछ परब्रह्म के अधीन है। आत्मोपासक आस्तिक और विद्यावान होने के नाते अपनी भक्ति और ज्ञान के माध्यम से परमपद तक पहुंचते हैं। श्रवण , मनन और निदिध्यासन (ध्यान) के माध्यम से परमपद प्राप्य है। यही मुक्ति है, यहां मृत्यु का कोई भय नहीं है।

दूसरा प्रश्न;
विदर्भदेशीय भार्गव ने दूसरा प्रश्न पूछा भगवन, यहां चल-अचल प्राणी हैं, कौन देवता इनकी रक्षा कर रहे हैं? इन दिव्य प्राणियों में से इस सृष्टि को रोशन करने वाला कौन है जिसकी सब पर संप्रभुता है? आचार्य ने उत्तर दिया मुख्यप्राण सभी प्राणियों का आधार है। पंचप्राणों का एकीकरण मुख्यप्राण है। मुख्यप्राण पृथ्वी को भोजन और वर्षा देता है ।मुख्यप्राण ही अग्नि होकर तपता है, यह सूर्य है, यह मेघ है, यही इंद्र, चंद्र और वायु है; यही माता पिता और गर्भ में प्राण का संचार करता है। यही प्रजापति के रूप में इंद्र चंद्र रूद्र विष्णु आदि सभी कुछ में समाये हुये है , यही ब्रह्मांड का विद्वंसक, रक्षक भी है; मुख्यप्राण ही सब कुछ है, यानी हम सभी इसके अवशेष हैं।

तीसरा प्रश्न;
तब कौसल्य ने आकर पूछा ‘हे महर्षि! इस मुख्यप्राण की उत्पत्ति कहां से होती है? यह शरीर में कैसे प्रवेश करता है ? वह खुद को पांच प्राणों में कैसे बांटता है? क्यों उत्क्रमण करता है?मुख्यप्राण की महत्व सापेक्ष है , नित्य सिद्ध नही है, वह क्या है जो मुख्यप्राण से भी श्रेष्ठ है?’ गुरु ने उत्तर दिया, आपका यह प्रश्न सभी प्रश्नों में श्रेष्ठ है आप ब्रह्मनिष्ठ हैं, और आप योग्य हैं। मैं आपको संक्षेप में इसका उत्तर दूंगा ‘ महर्षि ब्रह्म की पारलौकिक प्रकृति के बारे में सूक्ष्म जिज्ञासाओं को सुनकर हर्षित हो गए, उनके साथ ब्रह्म का एक वास्तविक साधक था। उन्होंने कहा परब्रह्म मुख्यप्राण के पिता और देवता हैं। जब जीवात्मा अपने गुण और दोष के परिणाम का अनुभव करती है, तब मुख्यप्राण प्रवेश करता है। जीव और प्राण व्यक्ति और छाया के समान हैं, मुख्यप्राण राजा हैं, बाकी पंचप्राण किंकर, सेवक हैं। वे शरीर के विभिन्न हिस्सों में रहते हैं। यदि प्राण वायु हृदय में रहती है, तो अपानवायु जननांग क्षेत्रों में होने वाले उत्सर्जक कार्यों का ध्यान रखती है, उदानवायू आंखों, कानों, नाक के माध्यम से वहां रहकर कार्य करती है, और समानवायु जठराग्नि में रहती है।

हृदय जीव का स्थान है, इसमें 101 नाड़ियाँ हैं और प्रत्येक में 72 उपखंड हैं, और इसमें प्रत्येक नाड़ी में 1000 नाड़ियाँ और उनकी 100 विषम शाखायें हैं। व्यान वायु इन सभी में व्याप्त है। उदानवायु, जब जीव सदाचारी होता है, यह ऊर्ध्वमुखी होती है तथा जीव को स्वर्ग (ब्रह्मरन्ध्र) में ले जाती है और यदि वह पापी है तो वह जीव को नरक में धकेल देती है। दुनिया गतिशील है, जीव क्रियाशील (क्रिया पर निर्भर)है, पुण्य और पाप क्रिया के फल हैं, इस पर निर्भर करता है कि उदानवायु जीव को ऊर्ध्वमुखी मुखी करेगी या अधोमुखी। पंचभूत और पंचप्राण संबंधित हैं; आँखों में मौजूद दृक शक्ति आदित्य प्राण (सूर्य से तेजस) के माध्यम से है। पृथ्वी पर अग्नि अपानवायु प्रवाह को अधोमुख बनाती है। समान पृथ्वी और दयु्लोक (स्वर्ग) के बीच की वायु है और व्यान समान और आकाश के बीच की है। अग्नि वास्तव में उदान है, जब यह बुझ जाती है, उदान वायु निकल जाती है, जठराग्नि की गर्मी कम हो जाती है, और मन इंद्रियों में लीन होकर जीव को एक शरीर से दूसरे शरीर में लेता जाता है।प्राण का उपासक मुमुक्षु है, केवल वह मोक्ष को प्राप्त करता है, मुक्ति अमृतत्व है। छह भक्तों में से, कौसल्य ही है जिसने महत्वपूर्ण प्रश्न पूछा था; इसलिए वह ब्रह्मजिज्ञासु शिश्योत्तम है। दूसरों के प्रश्न सीधे तौर परमात्म तत्त्व पर केंद्रित नहीं थे। कौशल्‍य ने मुख्‍यप्राण के जन्‍म के संबंध में पूछा और गुरु ने उत्तर दिया कि यह जन्म परब्रह्म से है, यह प्रश्‍न सिद्ध करता है कि कौसल्य ब्रह्म विद्या का हकदार है।

चौथा प्रश्न;
सौर्यायणि गार्ग्य ने पूछा श्रद्धेय, जब जीव सो रहा है, तो वे कौन से अंग हैं जो सोते हैं? वे कौन से अंग हैं जो जागते रहते हैं? जीव कब सपने देखता है? वह कौन है जो दुख और सुख का अनुभव करता है? वे किस पर स्थापित हैं? पिप्पलाद ने कहा ‘यह प्रश्न परतत्त्व प्रकाश के बारे में है। जैसे सूर्य की किरणें सूर्य के डूबते समय में एक गोले के रूप में एक हो जाती हैं और उगते समय वे फिर से फैल जाती हैं, ऐसा ही मन है। जागते समय, ध्यान इंद्रियों पर है और वे प्रकाश के साधन हैं, लेकिन नींद में, अलग बात है, इंद्रिय अंग सो जाते हैं, सुषुप्ति में, जीवात्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है। निद्रा में जीव ब्रह्म के सर्वव्यापी निवास, पुरितत नाड़ी में पहुंच जाता है , मन वहाँ सुषुप्ति में विलीन हो जाता है। सुषुप्ति के पहले स्वप्न आते हैं और जीवात्मा वह है जो स्वप्न का अनुभव करती है, सुषुप्ति में कोई स्वप्न नहीं होते। पक्षियों का एक दृष्टांत है, वे सुबह में घोंसला छोड़ते हैं और शाम को लौटते हैं। इसी प्रकार इंद्रियाँ, मन, पंचप्राण और जीव सुषुप्ति में विलीन हो जाते हैं। परमात्मा शुद्ध है, और अखिलहेयप्रत्यानीक (सभी अच्छाइयों का उसमें वास है) है ।वह अविनाशी है। परब्रह्म परमात्मा को पाने का परिणाम है। उपाय और उपेय दोनों ही परमात्मा और परब्रह्म हैं।

पांचवां प्रश्न;
शैब्य सत्यकाम ने पूछ श्रद्धेय, प्रणवोपासना ( ओम का ध्यान) साधना क्या है ? ’आचार्य ने उत्तर दिया ब्रह्मवाची प्रणव त्रिविध हैं। एकमातृकालिका (एक शब्दांश अ), द्विमातृकलिका (दो शब्दांश ओ), त्रिमातृकालिका (तीन शब्दांश ओम)। एक और द्विमातृकालिका ओमकार अपर ब्रह्मवाचक (निम्न ब्रह्म / प्रकट हिरण्यगर्भ) हैं, उन्हें ह्रस्व प्रणव कहा जाता है l एक मातृ प्राणवोपासक मृत्यूलोक पहुंचते हैं, रिक मंत्र (प्रथम मंत्र अ) उन्हें वहां पहुंचाता है। वह फिर से मानव के रूप में अवतार लेते हैं, लेकिन वह प्राणवोपासना , तपस , ब्रह्मचर्यनिष्ठा, और श्रद्धा के माध्यम से जीवन में महानता प्राप्त करते हैं। यजुमन्त्र द्विमातृकालिका प्रणवोपासक को सोमलोक (चंद्रमा की लोक) में ले जाते हैं वहां की भव्यता का आनंद लेने के बाद जब अच्छे कर्मों का लेखा-जोखा संतुलित हो जाता है वह धरती पर वापस आ जाते हैं, तो त्रिमातृवैधी प्राणवोपासक को सामगान (साम वेद के श्लोक) के साथ वैकुंठ में ले जाया जाता है , वह वहां परब्रह्म को प्राप्त करते हैं। व्यक्ति को प्रणवोपासना में विभिन्न मात्राओं और उनके महत्व के बारे में ज्ञान होना चाहिये।

छठा प्रश्न;
सुकेश ने छठा प्रश्न पूछा, जो कोसल के राजा हिरण्यनाभ ने उससे पूछा था, हे आदरणीय, षोडशकलात्मक पुरुष कौन है? वह कहां है ? ” पिप्पलाद ने उत्तर दिया ‘यहां, इस शरीर के अंदर ही है। यह कलाये ही भोग , आनंद और सहनशक्ति के कारण हैं, यह भी ईश्वर की रचना हैं, लेकिन जीव भोगी है। पहली कला मुख्यप्राण है, बाकी पंद्रह श्रद्धा , पंचभूत , इन्द्रियाँ , मानस , अन्न , वीर्य , तप , कर्म और लोक हैं। अंत में, षोडशकलायें सहस्रशीर्षपुरुष में विलीन हो जाते हैं जैसे कि महासागर में नदियाँ विलीन हो जाती हैं। उनका मूल परब्रह्म ही है। जिनका परब्रह्म में लय हो जाता है , मृत्यु भी उन्हें छू नहीं सकती। परब्रह्म सीमातीत, अपरिचिन्न, और अनंत है, यह ज्ञान ही ब्रह्म ज्ञान है।

इस परब्रह्म तत्त्व को पढ़ते और समझते हुये,आइये हम परब्रह्म के परम अवतार परब्रह्म नित्यानंद की उपासना करें, उनके मंत्र ओम नमो भगवते नित्यनंदाय का जप करें, और फिर मौन ध्यान करें।

नमो नित्यानंदाय

संकलनकर्ता
स्वामी विजयानंद

Hindi translation by
Pratyush Tomar

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